राग दरबारी (उपन्यास) : श्रीलाल शुक्ल
लड़के ने पिछले साल किसी सस्ती पत्रिका से एक प्रेम-कथा नकल करके अपने नाम से कॉलिज की पत्रिका में छाप दी थी। खन्ना मास्टर उसकी इसी ख़्याति पर कीचड़ उछाल रहे थे। उन्होंने आवाज बदलकर कहा, " कहानीकार जी, कुछ बोलिए तो, मेटाफर क्या चीज होती है?"
लड़के ने अपनी जाँघें खुजलानी शुरु कर दीं। मुँह को कई बार टेढ़ा-मेढ़ा करके वह आखिर में बोला , "जैसे महादेवीजी की कविता में वेदना का मेटाफर आता है----। "
खन्ना मास्टर ने कड़ककर कहा, "शट-अप! यह अंग्रेजी का क्लास है।" लड़के ने जाँघें खुजलानी बन्द कर दीं। वे ख़ाकी पतलून और नीले रंग की बुश्शर्ट पहने थे और आँखों पर सिर्फ चुस्त दिखने के लिए काला चश्मा लगाये थे।
वे ख़ाकी पतलून और नीले रंग की बुश्शर्ट पहने थे और आँखों पर सिर्फ चुस्त दिखने के लिए काला चश्मा लगाये थे। कुर्सी के पास से निकलकर वे मेज के आगे आ गये। अपने कूल्हे का एक संक्षिप्त भाग उन्होंने मेज से टिका लिया। लड़के को वे कुछ और कहने जा रहे थे , तभी उन्होंने क्लास के पिछले दरवाजे पर प्रिंसिपल साहब को घूरते पाया। उन्हें बरामदे में खड़े हुए क्लर्क का कन्धा-भर दीख पड़ा।
वे मेज़ का सहारा छोड़कर सीधे खड़े हो गये और बोले, "जी , शेली की एक कविता पढ़ा रहा था। "
प्रिंसिपल ने एक शब्द पर दूसरा शब्द पर दूसरा शब्द लुढ़काते हुए तेज़ी से कहा, " पर आपकी बात सुन कौन रहा है? ये लोग तो तस्वीरें देख रहे हैं।"
वे कमरे के अन्दर आ गये। बारी-बारी से दो लड़कों की पीठ में उन्होंने अपना बेंत चुभोया। वे उठकर खड़े हो गये। एक गन्दे पायजामे, बुश्शर्ट और तेल बहाते हुए बालोंवाला चीकटदार लड़का था; दूसरा घुटे सिर , कमीज और अण्डरवियर पहने हुए पहलवानी धज का। प्रिंसिपल साहब ने उनसे कहा, "यही पढ़ाया जा रहा है?"
झुककर उन्होंने पहले लड़के की कुर्सी से एक पत्रिका उठा ली। यह सिनेमा का साहित्य था। एक पन्ना खोलकर उन्होंने हवा में घुमाया। लड़कों ने देखा, किसी विलायती औरत के उरोज तस्वीर में फड़फड़ा रहे हैं। उन्होंने पत्रिका जमीन पर फेंक दी और चीखकर अवधी में बोले, "यहै पढ़ि रहे हौ?"
कमरे में सन्नाटा छा गया। 'महादेवी की वेदना ' का प्रेमी मौका ताककर चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। प्रिंसिपल साहब ने क्लास के एक छोर से दूसरे छोर पर खड़े हुए खन्ना मास्टर को ललकारकर कहा, " आपके दर्जे में डिसिप्लिन की यह हालत है! लड़के सिनेमा की पत्रिकाएँ पढ़ते हैं! और आप इसी बूते पर जोर डलवा रहे हैं कि आपको वाइस प्रिंसिपल बना दिया जाये! इसी तमीज से वाइस प्रिंसिपली कीजियेगा! भइया, यहै हालु रही तौ वाइस प्रिंसिपली तो अपने घर रही, पारसाल की जुलाई माँ डगर-डगर घूम्यौ।"
कहते -कहते अवधी के महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की आत्मा उनके शरीर में एक ओर से घुसकर दूसरी ओर से निकल गयी। वे फिर खड़ी बोली पर आ गये, "पढ़ाई-लिखाई में क्या रखा है! असली बात है डिसिप्लिन ! समझे, मास्टर साहब?"
यह कहकर प्रिंसिपल उमर खैयाम के हीरो की तरह, "मै पानी-जैसा आया था औ' आँधी-जैसा जाता हूँ " की अदा से चल दिये। पीठ-पीछे उन्हें खन्ना मास्टर की भुनभुनाहट सुनायी दी।
वे कॉलिज के फाटक से बाहर निकले। सड़क पर पतलून-कमीज पहने हुए एक आदमी आता हुआ दीख पड़ा। साइकिल पर था। पास से जाते-जाते उसने प्रिंसिपल साहब को और प्रिंसिपल साहब ने उसे सलाम किया। उसके निकल जाने पर क्लर्क ने पूछा, "यह कौन चिडीमार है?"
"मलेरिया-इंसपेक्टर है--नया आया है। बी.डी. ओ. का भांजा लगता है। बड़ा फितरती है। मैं कुछ बोलता नहीं। सोचता हूँ, कभी काम आयेगा। कभी काम आयेगा।"
आजकल ऐसे ही चिड़ीमारों से काम बनता है। कोई शरीफ आदमी तो कुछ करके देता ही नहीं।
क्लर्क ने कहा, "आजकल ऐसे ही चिड़ीमारों से काम बनता है। कोई शरीफ आदमी तो कुछ करके देता ही नहीं। "
थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप सड़क पर चलते रहे। प्रिंसिपल ने अपनी बात फिर से शुरु की, "हर आदमी से मेल-जोल रखना ज़रुरी है। इस कॉलिज के पीछे गधे तक को बाप कहना पड़ता है।"
क्लर्क ने कहा, "सो तो देख रहा हूँ। दिन-भर आपको यही करते बीतता है।"
वे बोले, "बताइए, मुझसे पहले भी यहाँ पाँच प्रिंसिपल रह चुके हैं। कौनो बनवाय पावा इत्ती बड़ी पक्की इमारत ?" वे प्रकृतिस्थ हुए, " यहाँ सामुदायिक केन्द्र बनवाना मेरा ही बूता था। है कि नहीं?"
क्लर्क ने सर हिलाकर 'हाँ' कहा।
थोड़ी देर में वे चिन्तापूर्वक बोले, "मैं फिर इसी टिप्पस में हूँ कि कोई चण्डूल फँसे तो इमारत के एकाध ब्लाक और बनवा डाले जायें।"
क्लर्क चुपचाप साथ-साथ चलता रहा। अचानक ठिठककर खड़ा हो गया। प्रिंसिपल साहब भी रुक गये। क्लर्क बोला, "दो इमारतें बननेवाली हैं। "
प्रिंसिपल ने उत्साह से गर्दन उठाकर कहा, "कहाँ ?"
"एक तो अछूतों के लिए चमड़ा कमाने की इमारत बनेगी। घोड़ा- डॉक्टर बता रहा था। दूसरे, अस्पताल के लिए हैज़े का वार्ड बनेगा। वहाँ ज़मीन की कमी है। कॉलिज ही के आसपास टिप्पस से ये इमारतें बनवा लें--फिर धीरे- से हथिया लेंगे।"
प्रिंसिपल साहब निराशा से साँस छिड़कर आगे चल पड़े। कहने लगे, "मुझे पहले ही मालूम था। इनमें टिप्पस नहीं बैठेगा।"
कुछ देर दोनों चुपचाप चलते रहे।